भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य जी महाराज
आज से लगभग 2522 वर्ष पूर्व केरल प्रदेश के कालटी नामक ग्राम में माता आर्याम्बा और पिता शिवगुरु से भगवान् शंकर ने देवताओं की प्रार्थना एवं माता-पिता की तपस्या से बालक शंकर के रूप में अवतरित हुए। बाल्यकाल से ही आपकी अद्भुत प्रतिभा बड़े बड़े विद्वानों को चमत्कृत करती रही। दो वर्ष की अल्पायु में ही आप मातृभाषा के विद्वान् बनकर उसमें साहित्य रचना करने लगे थे। उनकी इस प्रतिभा से प्रभावित होकर केरल के तत्कालीन नरेश राजशेखर ने उन्हें राजदरबार में सम्मानित करने हेतु आमन्त्रित किया । परन्तु बालक शंकर ने अपनी विद्याभ्यास की व्यस्तता बनाकर राजसेवकों को विनय पूर्वक वापस कर दिया । तब राजा स्वयं बालक शंकर का दर्शन करने आया और उनकी अलौकिक प्रतिभा का दर्सन कर अभिभूत हुआ।
आचार्य शंकर के बारे में प्रसिद्धि है कि उन्होंने आठ वर्ष की अवस्था में चारों वेद, बारह वर्ष में सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था और उनके द्वारा रचा गया भाष्य जो कि लोक में शांकरभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है, का प्रणयन उन्होंने सोलह वर्ष की अवस्था में ही कर दिया था। वे लोकोत्तर प्रतिभा के धनी थे । आठ वर्ष की आयु में ही उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी और वे माता से आज्ञा लेकर नर्मदा तट स्थित गोविन्दपादाचार्य जी से संन्यास ग्रहण कर शंकर भगवत्पाद के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे ।
आचार्य शंकर ने चार बार पैदल ही सारे देश का भ्रमण किया था और स्थान स्थान पर अपने ज्ञान के आलोक से लोगों को प्रभावित किया था । जहाँ वैचारिक मतभेद था उसे उन्होंने शास्त्रार्थ द्वारा निरस्त किया और सारे देश में एक ही सत्य सनातन धर्म की प्रतिस्थापना की । उनके समय में 72 सम्प्रदायों में सारा समाज बंट चुका था और मुख्य रूप से बौद्ध मतानुयायी वैदिक मत के विपरीत चलने को लोगों को प्रेरित कर रहे थे । ऐसे समय में आचार्य शंकर ने मतवादों का निरास करते हुए अद्वैत मत की प्रतिष्ठा की । उनके द्वारा दश उपनिषदों और गीता तथा ब्रह्मसूत्र पर किया गया भाष्य अत्यन्त प्रसिद्ध है ।
उत्तराम्नाय श्री-ज्योर्तिमठः एक परिचय -
सत्य सनातनधर्म
हम सभी में से प्रत्येक के मन में स्वयं को सुरक्षित रखते हुए गरिमापूर्ण, स्वस्थ, संतुष्ट, सुखमय जीवन जीने की इच्छा रहती है जिसके लिए हमारे और आपके जीवन का सारा कार्य व्यवहार है।
परमपिता परमात्मा की कृपा और उपदेश से हमारे पूर्वजों ने यह जान लिया था कि धर्माचरण ही इन सबसे समन्वित जीवन दे सकता है । इसलिए कहा – ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’। ‘धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा ‘आदि । वे सदा से ही धर्म का आचरण करते रहे हैं इसी से हमारे धर्म का नाम सनातन धर्म है । यह सदा से रहा है और सदा ही रहने वाला है।
आदि शंकराचार्य –
सत्य सनातन धर्म को सदा जीवन्त बनाए रखने के लिए प्रभु का समय-समय पर अवतार होता आया है । ऐसा ही एक शिवावतार तब हुआ जब देश में बौद्घ व्यवहार बढ़ गया और वेद – शास्त्रों के प्रति आम लोगों में अनास्था उत्पन्न की जाने लगी । तब सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले स्वयं भगवान् शिव शंकर केरल प्रदेश के कालटी नामक गाँव में पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के घर शंकर नाम से अवतरित हुए।
8 वर्ष में समस्त वेदों के ज्ञाता श्री शंकर ने संन्यास धारण कर 12 वर्ष की अवस्था तक सभी शास्त्रों का ज्ञान पाया और 16 वर्ष की अवस्था तक उपनिषदों, भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्रों पर शांकर भाष्य लिख दिया । पूरे देश की पदयात्रा की । शास्त्रार्थ के माध्यम से सनातन सिद्धांतों के विरोधी 72 मतों को पराजित किया और भविष्य में भी सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार होता रहे इस आशय से चारों वेदों को आधार बनाकर देश की चार दिशाओं में चार आम्नाय मठों की स्थापना कर उनकी चार पीठों पर अपने चार सुयोग्य शिष्यों को अभिषिक्त किया और अपने अनुयायियों को उन्हें शंकराचार्य ही समझने तथा तदनुरूप व्यवहार करने को कहा । तब से चारों पीठों पर चार शंकराचार्य अपने-अपने निर्धारित क्षेत्राधिकार में सनातन धर्म का संरक्षण करते आ रहे हैं । इन्हीं चारों में से उत्तर दिशा में अथर्ववेद का मठ है ज्योतिर्मठ।
ज्योर्तिमठ नाम का तात्पर्य –
ज्युतृ दीप्तौ अथवा द्युत दीप्तौ धातु से क्रमशः इसि, इसिन् प्रत्यय करने पर ज्योतिः शब्द निष्पन्न होता है ।जिसका अर्थ ‘ज्योतते इति ज्योतिः’ अर्थात् प्रकाशक होता है। प्रकाशक होने से दृष्टि, दीप, सूर्य ,चंद्र, अग्नि, नक्षत्र यहाॅ तक कि श्रीविष्णु को भी ज्योति शब्द कहा गया है। तात्पर्य यह है कि सभी प्रकाशक पदार्थ ‘ज्योति’ कहलाते हैं। गहरे में जाने पर ज्योति शब्द का अर्थ उसमे पहुँच जाता है जो सबका प्रकाशक है। अर्थात् सर्वावभाषक चैतन्य, स्वयंप्रकाश आत्मा। भगवान् आदि शंकराचार्य जी ने ज्योतिश्चरणाभिधानात् ब्रह्मसूत्र में अधिकरण के अंत में ‘अतः परमेव ब्रह्म ज्योतिः शब्दमिति सिद्धम्’ कहकर ज्योतिः शब्द का अर्थ परब्रह्म किया है। व्यवहार में भी हम ‘दीपो ज्योतिः परब्रह्म दीपोज्योतिर्जनार्दन। दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोस्तु ते’ कहकर दीप की ज्योति को प्रणाम करते हैं।
अतः भगवान् शंकराचार्य जी ने उत्तराम्नाय को ज्योतिर्मठ संज्ञा देकर इस मठ को उत्तमाधिकारी को ब्रह्मज्ञान कराने वाला, मध्यमाधिकारी को भगवद्प्राप्ति कराने वाला और सर्वसामान्य को धर्मज्ञान के द्वारा पाप से बचाने वाला संकेतित किया है।
ज्योतिर्मठाम्नाय
आदि शंकराचार्यजी ने चार पीठों की स्थापना कर मठों का अनुशासन सुनिश्चित किया। मठाम्नाय महानुशासनम् के अनुसार उत्तराम्नाय ज्योतिर्मठ का क्षेत्र बदरिकाश्रम, संप्रदाय आनन्दवार, संन्यासी गिरि-पर्वत-सागर, देवता (बदरी)नारायण, देवी पूर्णागिरि, आचार्य तोटकाचार्य, तीर्थ अलकनन्दा, ब्रह्मचारी आनन्द, वेद अथर्ववेद, महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म, गोत्र भृगु, क्षेत्राधिकार कुरु -कंबोज-कश्मीर-पंजाब-सिन्ध सहित समस्त उत्तर प्रदेश है।
ज्योतिर्मठ के प्रथम आचार्य
ज्योतिर्मठ के प्रथम आचार्य श्री तोटकाचार्य जी थे जो भगवान् शंकराचार्य जी के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे। गिरी नाम के संन्यासी तोटकाचार्य के रूप में इसलिए प्रसिद्ध हुए क्योंकि गुरु सेवा में लगे इनके बारे में सहपाठियों के मन में जब यह भ्रांति आ गई कि इन्हें शास्त्र ज्ञान नहीं तब इन्होंने सहसा तोटक छन्द में गुरु की स्तुति की। इनके द्वारा रचित श्रुतिसारसमुद्धरणम् ग्रन्थ और केरल के त्रिशूर में स्थापित विशाल मठ इनके शास्त्र और व्यवहारज्ञान के आज भी निदर्शक हैं।
दीर्घजीवी आचार्य परंपरा
ज्योतिर्मठ भव्यताओं के साथ दिव्यताओं से भी भरा है।यहाँ के प्रथम आचार्य तोटकाचार्यजी से लेकर 21 दीर्घजीवी आचार्यों की परंपरा का श्रवण आज भी किया जाता है जिनके नित्य-निरन्तर स्मरण से योगसिद्धि की प्राप्ति कही गई है।
तोटको विजयः कृष्णः कुमारो गरुडः शुकः।
विन्ध्यो विशालो बकुलो वामनः सुंदरोऽरुणः।।
श्रीनिवासस्तथानन्दो विद्यानन्दः शिवो गिरिः।
विद्याधरो गुणानन्दो नारायण उमापतिः।।
एते ज्योतिर्मठाधीशा आचार्याश्चिरजीविनः।
य एतान् संस्मरेन्नित्यं योगसिद्धिं स विन्दति।।
ज्योतिर्मठ का वर्तमान स्वरूप
सनातन संजीवनी परमाराध्य' परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती '१००८' का संक्षिप्त परिचय
सनातनी दृष्टिकोण से समस्त विश्व में भारत की भूमि सबसे अधिक पवित्र मानी जाती है। इसी भूमि पर समय-समय पर अनेक भगवदवतार हुए हैं। भगवान् नारायण से आरम्भ होने वाली गुरु-परम्परा में भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य जी संवत् २०२० से २५३० वर्ष पूर्व अवतरित हुए और उन्होंने भारत को एकता के सूत्र में निबद्ध किया। भारत की चार दिशाओं में चार वेदों के आधार पर चार आम्नाय पीठों की स्थापना कर देश की धार्मिक व साँस्कृतिक सीमा को सुदृढ बनाया।
इन्हीं चार पीठों में से अन्यतम उत्तराम्नाय ज्योतिर्मठ बदरिकाश्रम हिमालय के वर्तमान जगद्गुरु शंकराचार्य परमाराध्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती'१००८' आज सनातन संजीवनी के रूप में हम सबको प्राप्त हैं।
'परमाराध्य' स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती'१००८'; यह एक ऐसा नाम है जिनका जीवन एक आदर्श के रूप में पूरे विश्व के सामने है। जिस प्रकार सूर्य को छिपाकर नहीं रखा जा सकता। वह जहाँ रहता है स्वयं प्रकाशित होकर पूरे विश्व को प्रकाशित करता है ऐसे ही 'परमाराध्य' स्वयं तो आत्मज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण हैं ही पर जो भी इनके सम्पर्क में आ जाता है वह भी आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होकर आनन्दित हो जाता है।
आविर्भाव :
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के ब्राह्मणपुर गाँव में श्रावण शुक्ल द्वितीया दुन्दुभि संवत् २०२६ (तदनुसार दिनांक १५ अगस्त १९६९ ई.) दिन शुक्रवार को पूजनीया माता अनारा देवी तथा पिता पं रामसुमेर पाण्डेय जी ने इस अनमोल रत्न को जन्म दिया और नाम रखा उमाशंकर पाण्डेय।
शिक्षा :
ब्राह्मणपुर के स्थानीय विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा हुई। बाल्यकाल से ही उमाशंकर की कुशाग्र बुद्धि एवं प्रत्युत्पन्नमति से सभी चमत्कृत थे। तीसरी कक्षा में ही अध्यापकगण इनको अपनी कुर्सी पर बिठाकर पढाते थे। छठवीं कक्षा तक की शिक्षा स्थानीय विद्यालय में हुई।
इसके बाद की शिक्षा गुजरात के बडौदा स्थित महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी में हुई। इसके बाद पूज्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज का सान्निध्य पाकर उनकी प्रेरणा से काशी में संस्कृत अध्ययन के लिए आए जहाँ उनको धर्मसम्राट् स्वामी करपात्री जी महाराज की उनके अन्तिम समय में सेवा करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। यहॉ पर बाजोरिया संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन किया फिर उसके बाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में नव्य व्याकरण से आचार्य तक की पढाई पूरी की। आपने भट्टोजि दीक्षित कृत 'शब्दकौस्तुभ' पर अपना शोध लिखा। शिक्षाचार्य, शिक्षाशास्त्री कक्षाओं में अध्ययन किया और स्वतन्त्र प्रत्याशी के रूप में छात्रसंघ के उपाध्यक्ष और विद्यार्थी परिषद् के प्रत्याशी के रूप में अध्यक्ष पद को भी अलंकृत किया और अपनी नेतृत्व क्षमता का सबको आभास कराया।
नैष्ठिक ब्रह्मचर्य दीक्षा :
वर्ष २००० ई. में पूज्यपाद शंकराचार्य जी महाराज ने कोलकाता में इनको नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा प्रदान की और द्वारका शारदापीठ के ब्रह्मचारी के रूप मे आनन्दस्वरूप नाम दिया। आनन्दस्वरूप इस नाम को उलट देने से पूज्य ब्रह्मलीन महाराज का ही नाम आता है।
दण्ड संन्यास दीक्षा :
वर्ष २००३ ई. में पूज्य शंकराचार्य जी द्वारा ब्रह्मचारी आनन्दस्वरुप की संन्यास दीक्षा हो गई और वे आनन्दस्वरूप से स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती हो गये। इस नाम में भी पूज्य ब्रह्मलीन महाराज जी का श्रीविद्या सम्प्रदाय का नाम आता है।
पूर्णाभिषेक दीक्षा :
श्रीविद्या साधना की परम्परा में सबसे बडी माने जाने वाली पूर्णाभिषेक दीक्षा वर्ष २०१० ई. में हुई। श्रीविद्या साधना की परम्परा का निर्वहन करते हुए पूज्य स्वामिश्रीः प्रतिदिन पाँच समय पंचायतन देवताओं की उपासना विधिपूर्वक करते हैं और समय-समय पर महापूजा भी सम्पन्न करते हैं।
जागरुक आचार्य :
काशी सहित देश में जब-जब भी धर्म के विरुद्ध कोई बात आती है तब-तब महाराजश्री सबसे पहले शास्त्रसम्मत वक्तव्य देते हैं और समाज को सही दिशानिर्देश देते हैं। महाराजश्री की यह विशेषता है कि वे केवल वक्तव्य देकर ही शान्त नही बैठते अपितु समस्या के सम्यक् समाधान का पूरा प्रयास भी करते हैं। इसी क्रम में उन्होंने अनेक उल्लेखनीय आन्दोलन चलाए।
नियमित अध्ययन-अध्यापन :
'परमाराध्य' प्रतिदिन पद-वाक्य-प्रमाण एवं पारावारादि ग्रन्थों का स्वयं अध्ययन करते हैं एवं छात्रों को भी नियम से अध्यापन कराते हैं। उनकी पाठ-शैली इतनी सरल होती है कि कोई भी सामान्य बुद्धि का बालक भी सुन-समझकर दूसरों को समझाने की योग्यता सहज में ही पा लेता है। जब तक छात्र को कथ्य समझ न आए तक तक उसे अनेक उदाहरण-प्रत्युदाहरण से समझाने का अथक प्रयास ही उन्हें सबसे विशेष बनाता है। ब्रह्मसूत्र जैसे वेदान्त के निकष ग्रन्थ को भी अत्यन्त बोधगम्य बना देने की कला सुनने वालों को सब कार्य छोड़कर जीवन भर केवल छात्र ही बने रहने की इच्छा उत्पन्न कर देती है। परन्तु सच्चा गुरु तो शिष्य नहीं बनाता वह उसे गुरु ही बना देता है। 'परमाराध्य' से पढ़े हुए छात्र आज अनेक संस्थानों में अध्यापन करा रहे हैं और समाज को अपना विशिष्ट योगदान प्रदान कर रहे हैं।
रामसेतु रक्षा अभियान :
जब रामसेतु को तोड़ने का आदेश तत्कालीन केन्द्र की सरकार ने दिया था तब 'परमाराध्य' ने रामसेतु रक्षा आन्दोलन आरम्भ किया और इसे तब तक चलाया जब तक सेतु रक्षित नहीं हो गया। इस हेतु 'परमाराध्य' उच्चतम न्यायालय भी गये।
स्त्री-अपमान पर मुखरता :
सनातन धर्म में स्त्रियों का सदा से ही एक सम्मानित स्थान रहा है। 'परमाराध्य' शास्त्रवाक्य सुनाकर बताते हैं कि पुष्प से भी स्त्री को घात पहुँचाने का निषेध हमारे धर्मशास्त्रों में किया गया है। एक बार वाराणसी एयरपोर्ट पर किसी एयरलाइन्स के कुछ कर्मचारियों ने किसी स्त्री के लिए अभद्र टिप्पणी की जिसे 'परमाराध्य' ने सुन लिया और मुखर विरोध किया। अधिकारियों को उनकी इस गलती का एहसास हो इस हेतु 'परमाराध्य' ने दृढता दिखाई। लगभग तीन दिन तक चले इस दृढ विरोध के बाद उच्च अधिकारियों ने इस घटना का संज्ञान लेकर उन कर्मचारियों को कार्यमुक्त कर दिया। 'परमाराध्य' ने उन सबसे उस बहन के समक्ष क्षमायाचना करवाई और प्रायश्चित्त के रूप में उनसे गंगा घाट की सीढ़ियाँ धुलवाईं और भविष्य में स्त्री सम्मान हेतु सदा सजग रहने का वचन भी लिया।
धर्मदण्ड मर्यादा
यह नियम है कि दण्ड संन्यास दीक्षा के बाद संन्यासी को अपने साथ दण्ड लेकर ही चलना होता है। एक दण्डी संन्यासी बिना दण्ड के कैसे रहे? एक बार मुम्बई हवाई अड्डे से हवाई यात्रा को प्रस्थित 'परमाराध्य' को विमान के अधिकारियों ने धर्मदण्ड को साथ लेकर यात्रा करने से रोक दिया। अनुरोध करने से भी वे नहीं माने और परमाराध्य को विमान में बैठने के बाद उतरना पड़ा। परमाराध्य ने विरोध दर्ज कराया और दो दिन वहीं रुके रहे। अन्ततः पत्तन प्रभारी और उड्डयन मन्त्रालय दोनों ने लिखित क्षमा माँगी और विशेष विमान से उन्हें उनके गन्तव्य तक ससम्मान पहुँचाया। 'परमाराध्य' बताते हैं कि यदि व्यक्ति स्वधर्म पालन की दृढ इच्छा रखे तो धर्मविरोधी स्वतः धराशायी होंगे।
वैदिक शिक्षा का संरक्षण
'परमाराध्य' ने ब्रह्मलीन सद्गुरुदेव महाराज की इच्छा के अनुरूप काशी के श्रीविद्यामठ में वेद पाठशाला की स्थापना की। इसका नाम जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती न्याय-वेदान्त महाविद्यालय रखा। आज तक इस विद्यालय से लगभग एक हजार वैदिक छात्र वेदों की शिक्षा प्राप्त कर पूरे भारत में वैदिक ज्ञान की परम्परा को संरक्षित-संवर्धित कर रहे हैं।
सार्वभौम गंगा सेवा अभियानम्
'परमाराध्य' ने गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए अथक प्रयास किए। काशी के चितरंजन पार्क पर सभी प्रमुख पंथों के लोगों द्वारा लम्बे समय तक ऐतिहासिक धरना प्रदर्शन आयोजित कराया। इसके बाद वर्ष २०१२ में अनेक गंगा तपस्वियों द्वारा अन्न-जल त्याग तपस्या का संचालन कराया। किसी की गति को रोक देना असम्मान है। गंगाजी की भी गति को नहीं रोका जाना चाहिए। उसकी अविरल बहने वाली धारा को बाँधों में बाँधकर अवरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए। गंगा को राष्ट्र नदी भी घोषित किया गया है तो जो सम्मान राष्ट्र ध्वज को प्राप्त है वही सम्मान माता गंगा को भी प्राप्त होना चाहिए। जैसे तिरंगे के अपमान पर कडी सजा दी जाती है वैसे ही माता गंगा पर गन्दगी डालकर उनका अपमान करने वालों को भी कडा दण्ड दिया जाना चाहिए। गंगा की धारा अविरल और निर्मल होकर सदा प्रवाहित रहनी चाहिए। गंगाजी को राष्ट्रनदी घोषित करने की मांग भी आप ही की थी जो तत्कालीन केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकार की गयी थी और गंगा नदी घाटी प्राधिकरण का निर्माण भी किया गया था।
श्रीरामजन्मभूमि मुकदमे में महत्वपूर्ण योगदान
पूज्यपाद ब्रह्मलीन शंकराचार्य जी ने रामजन्मभूमि के लिए अनेक उल्लेखनीय प्रयास किए। उनके द्वारा निर्मित श्रीरामजन्मभूमि पुनरुद्धार समिति के उपाध्यक्ष पद पर रहते हुए 'परमाराध्य' ने रामजन्मभूमि के मुकदमे को न्यायालय में लडा। इस मुकदमे में विशेषज्ञ साक्षी के रूप में 'परमाराध्य' ने रामजन्मभूमि के अनेक शास्त्रीय प्रमाण न्यायालय के समक्ष रखे। मुकदमे के निर्णय में इसका उल्लेख विद्वान् न्यायाधीशों ने अनेक स्थानों पर किया है। इसी तरह चारों शंकराचार्यों, पॉच वैष्णवाचार्यों और तेरह अखाडों के प्रमुखों के 'रामालय न्यास' के भी आप सचिव हैं।
प्रातर्मंगलम्
हमारे सनातन धर्म में प्रातःकाल को अत्यन्त महत्व दिया गया है। काशी नगरी में भी इस महत्वपूर्ण समय को सुबह-ए-बनारस व्ाâहकर निरूपित किया जाता है। परमाराध्य को काशी में रहते हुए यह विचार आया कि इस बनारस की सुबह की प्रसिद्धि केवल नाम के कारण न हो, अपितु इस सुबह को कुछ ऐसा विशिष्ट बनाया जाए जिससे इसमें भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति द्वारा सहज में ही पंचदेवोपासना भी हो जाए और काशीवासियों को भी इस सुबह का लाभ मिले।
उन्होंने प्रातः को सभी के लिए मंगल बनाने के उद्देश्य से प्रातर्मंगलम् कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। काशी के केदार क्षेत्र में स्थित शंकराचार्य घाट पर आज भी वैदिक बटुक एवं श्रद्धालु जन गणेश वन्दना के बाद, भगवान् सूर्य को अर्घ्य प्रदान कर योगासन, विष्णु स्मरण, शिव कीर्तन एवं गंगा आरती करते है। इस तरह से काशी में नित्य प्रातर्मंगलम् हो रहा है।
वाग्वर्धिनी शास्त्रार्थ सभा
काशी का श्रीविद्यामठ 'परमाराध्य' के नेतृत्व में प्राचीन परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विख्यात है। 'परमाराध्य' ने काशी की पारम्परिक संस्कृत विद्या को नयी पीढ़ी के बालकों तक पहुँचाने के लिए प्रत्येक त्रयोदशी को वाग्वर्धिन्ाी शास्त्रार्थ सभा का प्रणयन किया। न्याय-वेदान्त-व्याकरण-धर्मशास्त्र-ज्योतिष आदि अनेक विषयों पर काशी के प्रख्यात विद्वानों द्वारा तैयार किए गये छात्र शास्त्रार्थ में विजयी होकर आज अनेक संस्थानों में उच्च पदों पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
सपाद लक्षेश्वर धाम
परमाराध्य के सभी कार्य ऐतिहासिक एवं गौरवपूर्ण होने के साथ ही साथ ऐसे होते हैं कि जिससे कम समय एवं कम उपायों से ही हम संसारी मनुष्यों का कल्याण हो सके। छत्तीसगढ के बेमेतरा जिले में निर्मित हो रहा विश्व का एकमात्र सलधा धाम इसी का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। यहॉ पर निर्माणाधीन मन्दिर में एक साथ सवा लाख शिवलिंगों की स्थापना की जाएगी। एक बार प्रणाम करने से सवा लाख शिवलिंग को एक ही साथ प्रणाम हो जाएगा। एक-एक शिवलिंग की स्थापना का यह सुन्दर अवसर भी हम आप जैसे अनेक भक्तों को मिल रहा है। अब तक अनेक शिवभक्त अपने एवं अपने पूर्वजों के नाम से एक-एक शिवलिंग स्थापना के लिए अपनी सहयोगराशि समर्पित करते जा रहे हैं। शीघ्र ही यह मन्दिर आकार लेकर पूर्णता को प्राप्त होने को है। इस मन्दिर के निर्माण का संकल्प परमाराध्य ने ४ कारणों से लिया है- १- श्रीरामजन्मभूमि में विवाद का अन्त (जो कि हो चुका), २- गंगाजी की अविरल-निर्मल धारा, ३- पूरे देश में पूर्ण रूप से गौहत्या बन्दी और ४- यहाँ से जुड़े सभी लोगों का सर्वविध कल्याण।
स्वर्णाक्षर ग्रन्थ
'इतिहास में अमुक का नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित किया गया।' ऐसे वाक्य हम और आप सबने सुन रखा है परन्तु क्या किसी ने खोज की कि ऐसा स्वर्णाक्षर वाला ग्रन्थ किस संग्रहालय में सुरक्षित है? नहीं न !! परमाराध्य ने जब इसकी खोज की तो उन्हें ऐसा ग्रन्थ तो कहीं उपलब्ध न हुआ पर वे शान्त नहीं बैठे।
उन्होंने ब्रह्मलीन शंकराचार्य जी महाराज द्वारा स्थापित संस्था आध्यात्मिक उत्थान मण्डल के ५०वें स्थापना समारोह पर काशी में पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् को स्वर्णाक्षर ग्रन्थ समर्पित किया। इस कार्यक्रम में शंकराचार्य जी की स्वर्ण-सपर्या की गयी। आपको जानकर अपार हर्ष होगा कि विश्व के पहले स्वर्णाक्षर ग्रन्थ में मेरे सद्गुरुदेव ब्रह्मलीन द्विपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु शंकराचार्य जी महाराज का नाम सोने के अक्षरों से अंकित है और इस प्रथम स्वर्णाक्षर ग्रन्थ के प्रणयनकर्ता परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जी ही हैं। इनके इस अद्भुत, अद्वितीय, अकल्पनीय और ऐतिहासिक कार्य से स्वर्णाक्षर में अंकित वाली उक्ति भी सत्य हो सकी।
प्रतिकार यात्रा
'परमाराध्य' का सदा से ही यह सिद्धान्त रहा है कि अपनी ऑंखों के सामने हो रहे अन्याय का प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। हम अन्याय रोकने में सफल भले ही न हों परन्तु प्रतिकार कर देने से हो रहे अन्याय को देखकर चुप रहने का दोष हम पर नहीं लगता। घटना वर्ष २०१५ की है जब काशी में भगवान् श्रीगणेश जी की प्रतिमा को विसर्जित करने से रोका गया और बीच सडक पर भगवान् बिना राग-भोग के तीन दिन रहे। 'परमाराध्य' को जब इस बात का पता चला तो वे चुप न रह सके और स्वयं भी भगवान् गणेश जी के पास पहुँच गये। उनका कहना था कि पहले तो भगवान् की प्रतिमा को ससम्मान किसी सुरक्षित स्थान पर विराजमान कर उनकी नियमित पूजा-अर्चना हो और बाद में अन्य बातें हों परन्तु तत्कालीन प्रशासन के अव्यवहारिक निर्णयों के कारण भगवान् सड़क पर ही रहे और 'परमाराध्य' सहित उपस्थित अनेक गणेश भक्तों पर बर्बर लाठीचार्ज हो गया। परमाराध्य भागे नहीं और दोनों हाथ फैलाकर पुलिस वालों को मारिये-मारिये कहकर हतप्रभ कर दिया। आज भी इण्टरनेट पर पडे इस वीडियो को देखकर रोमांच हो जाता है।
इस अन्याय के प्रतिकार के लिए 'परमाराध्य' सहित असंख्य गणेशभक्तों की प्रतिकार यात्रा काशी में आयोजित हुई। इस यात्रा का आयोजक अथवा आमन्त्रक कोई न था अपितु यह समस्त काशीवासियों सहित पूरे देश के हृदय की पीडा थी जो सड़क पर अपार जनसमूह के रूप में सहज ही निकल पडी थी। कहा जा रहा था कि इससे पहले इतनी अधिक संख्या में इतना जनसमूह किसी भी घटना पर एकत्र न हुआ था। लगभग पॉच लाख से अधिक लोग इस यात्रा में सम्मिलित थे जो नंगे पैर, हाथ में धर्मदण्ड लिए चल रहे इस महात्मा के पीछे हो लिए थे।
माता पूर्णाम्बा देवी के सम्मान की रक्षार्थ निर्जल तपस्या
वर्ष २०१६ में 'परमाराध्य' ने आदि शंकराचार्य जी के आविर्भाव के २५२५ वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर ज्योतिर्मठ महिमा महोत्सव कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें देश भर के विद्वान् उपस्थित थे। इस आयोजन के क्रम में ज्योतिर्मठ की अधिष्ठात्री माता पूर्णाम्बा देवी का पूजन करने महाराज जी गये और देखा कि देवी जी की ठीक से पूजा ही नहीं हो रही है। पूजा चलती रहे इस हेतु उस समय 'परमाराध्य' ने वहाँ निर्जल तपस्या आरम्भ की और देवी जी की पूजा-अर्चना में हो रही सभी अव्यवस्थाओं को सही करते हुए नियमित पूजा आरम्भ कराई।
मन्दिर बचाओ आन्दोलनम्
'परमाराध्य' जब भी काशी सहित देश में मन्दिर एवं मूर्तियों को केन्द्र अथवा राज्य सरकारों द्वारा तोडा गया उसका खुलकर विरोध किया। उनका कहना है कि हम विकास के विरोधी नहीं हैं। गुरु परम्परा के महान् आचार्य बादरायण व्यास जी ने अनेक पुराणों की रचना की और भारत के विविध क्षेत्रों के धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व को निरूपित किया है। इन इतिहास एवं पुराणों का वाचन धर्माचार्य करते हैं जिसके कारण जनता उन स्थानों पर पहुँचती है और तीर्थ यात्रा के कारण रोजगार के अनेक अवसर बढते हैं और क्षेत्र का विकास होता है। एतावता मन्दिर आदि धार्मिक स्थल विकास के सहायक हैं, न कि विरोधी। इसलिए मन्दिरों को संरक्षित करते हुए विकास करना चाहिए।
'परमाराध्य' न तो किसी पार्टी विशेष के समर्थक हैं और न ही विरोधी। सत्य सनातन धर्म की ओर जहाँ से भी खरोंच आती दिखती है, वे मुखर हो उठते हैं।
उन्होंने उत्तर प्रदेश में मायावती के शासनकाल में तोडे जा रहे रानी भवानी मन्दिर को तोडने का विरोध किया। समाजवादी सरकार के शासनकाल में भगवान् गणेश जी की प्रतिमा के अपमान किए जाने का उन्होंने विरोध किया। योगी आदित्यनाथ के प्रथम शासनकाल में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के समय में तोडे जा रहे असंख्य मन्दिरों एवं मूर्तियों की रक्षा के लिए आवाज उठाई और मन्दिर बचाओ आन्दोलनम् चलाया। इस हेतु उन्होंने १२ दिनों का पराक व्रत (केवल जल पीते हुए) किया। कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध प्रसिद्ध गंगा आन्दोलन किया।
कोरिडोर निर्माण के नाम पर कूडे में फेंके गये शिवलिंग आज भी काशी के लंका थाने में रखे हुए हैं जिसकी नियमित पूजा 'परमाराध्य' की ओर से की जा रही है और इस सन्दर्भ का एक वाद भी न्यायालय में लम्बित है।
वर्ष २०१५ में जब अनेक पौराणिक मन्दिर एवं देवमूर्तियों के विध्वंस का क्रम आरम्भ हुआ तो 'परमाराध्य' से यह सहन न हुआ। उन्होंने हो रहे इस अनर्थ को अनेक उपायों से रोकने का प्रयास किया। इस अनीति से देवता कुपित होकर काशीवासियों को दण्डित न करें इस हेतु एक मन्दिर बचाओ यज्ञ भी आयोजित कराया और स्वयं १२ दिन केवल जल पीकर 'पराक् व्रत' किया।
इसी क्रम में उन्होंने काशी में पदयात्रा भी की। नंगे पैर ज्येष्ठ मास की कडी धूप की परवाह किए बिना ही सूर्योदय से सूर्यास्त तक निराहार चलते हुए उन्होंने काशी के लगभग ३००० से भी अधिक मन्दिरों में दर्शन एवं पूजन किया और काशी के देवताओं से ही इस विध्वंस को रोकने की गुहार लगाई। इस यात्रा में चलते-चलते परमाराध्य के पैरों में अनेक फफोले भी पड़े पर उनका कहना था कि इस शारीरिक कष्ट के आगे हो रहा मानसिक कष्ट अधिक है। उनको सबसे बड़ी चिन्ता इस बात की थी कि आने वाली पीढ़ी जब पुराणों में उल्लिखित स्थान का दर्शन करने उन-उन स्थानों पर पहुँचेगी और वहाँ मन्दिर को न पाएगी तो कहीं इन पुराणों को ही मिथ्या समझ सनातन धर्मग्रन्थों पर अश्रद्धा न करने लगे।
काशी पदयात्रा-
'परमाराध्य' को अविमुक्त क्षेत्र अत्यन्त प्रिय है और भगवान् शिव में उनकी बाल्यकाल से ही विशेष आस्था रही है। सम्भवतः तभी ब्रह्मलीन सद्गुरुदेव द्विपीठाधीश्वर जी महाराज ने संन्यास के समय नाम ही अविमुक्तेश्वरानन्द रखा है।
'परमाराध्य' मानते हैं कि काशी नगरी सनातन धर्म का केन्द्र है और यहाँ की धरती पर जो भी घटित होता है उसका प्रभाव और सन्देश पूरे विश्व में जाता है। काशी को आदर्श मानकर अनेक लोग अपना जीवन संचालन करते हैं।
परमधर्मसंसद् १००८ की स्थापना
सनातन धर्म की रक्षा के लिए 'परमाराध्य' ने पूज्य शंकराचार्य जी महाराज के आदेश पर 'परमधर्मसंसद् १००८' की स्थापना की है जिसके द्वारा विश्व भर के सनातनी लाभान्वित हो रहे हैं। संस्था के १०८ सेवालयों के माध्यम से यह सेवा निरन्तर संचालित हो रही है।
१०८ सेवालयों की स्थापना
'परमाराध्य' ने धार्मिक गतिविधियों के संचालन, भारतीय संस्कृति-सभ्यता के संगठन एवं कार्य को व्यवस्थित रूप देने के लिए १०८ सेवालयों की स्थापना की है जिनके बारे में अलग से पुस्तक उपलब्ध है।
शंकराचार्य सर्वस्वम्
भगवान् शंकराचार्य के समस्त ग्रन्थ एक स्थान पर उपलब्ध कराने का कार्य परमाराध्य ने शंकराचार्य सर्वस्वम् के माध्यम से किया। अब परमाराध्य चाहते हैं कि इसका एक आलोचनात्मक संस्करण तैयार हो, विभिन्न लिपियों में इसका प्रकाशन हो और शंकराचार्य ग्रन्थ शब्दकोश भी तैयार हो। इस दिशा में निरन्तर कार्य कर रहे हैं।
शांकर-स्तोत्र-प्रवचन
शंकराचार्य परम्परा के बड़े-बड़े ग्रन्थों पर प्रवचन-भाष्यादि तो उपलब्ध हो जाते हैं पर स्तोत्रादि पर विस्तृत व बुद्धिगम्य व्याख्यान कहीं उपलब्ध नहीं होता। खोजने पर कुछ स्तोत्रों के हिन्दी अर्थ तो मिल जाते हैं पर एक-एक शब्द की गूढ व्याख्या अब तक अनुपलब्ध ही थी। परमाराध्य ने शांकर साहित्य के प्रेमियों पर कृपा करके भगवत्पाद के सभी स्तोत्रों पर प्रवचन प्रारम्भ किया है।
शंकराचार्य सर्वस्वम् नामक ग्रन्थ में दिए स्तोत्र क्रम से उनके अब तक हुए प्रवचनों को उनके यू ट्यूब चैनल १००८.guru से प्राप्त किया जा सकता है।
प्रश्न-प्रबोध
कोरोना महामारी के समय जब लोगों से साक्षात् मिलना सम्भव नहीं हो पा रहा था तब परमाराध्य ने प्रश्न-प्रबोध की एक अद्भुत श्रृंखला आरम्भ की। सहज स्वभाव से ओतप्रोत परमाराध्य के अकाट्य तर्कों से युक्त शास्त्रीय उत्तर पाकर जिज्ञासु अपने घर पर बैठकर ही बहुत बडा लाभ प्राप्त कर सके। आज भी जब भी कोई जिज्ञासु जिस भी माध्यम से उनसे प्रश्न करता है वे समय मिलते ही शास्त्रीय समाधान प्रदान करते हैं। 'परमाराध्य' के रूप में समस्त सनातनी जगत् को एक शास्त्रीय समाधान कोश प्राप्त हो चुका है। जिसे भी धर्म/अध्यात्म के सम्बन्ध में कुछ जानने की इच्छा हो वह बस समक्ष आ जाए। समाधान की तो एक सौ एक प्रतिशत की गारण्टी है।
१०८ फीट ऊँचा ध्वजारोहण
वर्ष २०२१ में छत्तीसगढ के कवर्धा शहर में जब अन्य मतावलम्बियों ने भगवा ध्वज का अपमान किया तब महाराज जी ने उसका कड़ा प्रतिकार किया और उसी स्थान पर पुनः १०८ फुट ऊँचा विशाल धर्मध्वज लहराया जो आज भी सनातन धर्म के गौरव को प्रकट करता हुआ फहरा रहा है।
जगद्गुरुकुलम्
वर्तमान में पूज्यपाद महाराज जी की १० हजार बच्चो के एक जगद्गुरुकुलम् के निर्माण की योजना चल रही है जिसमें बच्चों को निःशुल्क अन्न-वस्त्रादि देकर अध्यापन कराया जाएगा। १०८ बच्चों का पहला परिसर परमहंसी गंगा आश्रम में आरम्भ हो चुका है। दूसरा १०८ बच्चों का परिसर काशी में चलने लगा है। तीसरे क्रम में जबलपुर में १००८ बच्चों के जगद्गुरुकुलम् परमहंस माता ललिता परिसर का निर्माण जारी है। शीघ्र ही परिसर का विस्तार प्रस्तावित है।
ज्ञानवापी में प्रकट आदि विश्वेश्वर की पूजा-अर्चना के लिए तपस्या
हाल ही में जब भगवान् काशी विश्वेश्वर प्रकट हुए तब 'परमाराध्य' काशी पधारे और उन्होंने कहा कि जब भी भगवान् प्रकट होते हैं तो उनकी पूजा किए जाने का नियम हमारे धर्मशास्त्रों में बताया गया है। ब्रह्मलीन शंकराचार्य जी के आदेश से वे काशी पहुचे और पूजन के लिए जैसे ही प्रस्थित हुए तब वाराणसी पुलिस प्रशासन ने उन्हें बलपूर्वक श्रीविद्यामठ मंऔ ही रोक दिया। तब पूज्य महाराज जी ने १०८ घण्टे की निर्जल तपस्या की। उनका कहना था कि जब उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से शिवलिंग के विधिपूर्वक संरक्षण का आदेश वाराणसी के जिलाधिकारी को दिया है तो उसका पालन न होना न्यायालय के आदेश की अवहेलना है। इस सन्दर्भ में उन्होनें जिलाधिकारी को नोटिस भी दिया जिसका उत्तर आज भी अप्राप्त है। तब इस सन्दर्भ का एक वाद भी न्यायालय में दायर किया जिस पर सुनवाई हो रही है।
परम्पराओं का पुनर्जीवन
(अ) परमाराध्य ने जहाँ अनेक नयी परम्पराओं का प्रणयन किया वहीं उन्होंने विलुप्त हो चुकी प्राचीन परम्पराओं को पुनर्जीवन भी प्रदान किया। वर्ष १८६६ के बाद लगभग पूरे २३५ वर्षों के बाद यह अवसर आया जब ज्योतिर्मठ के जगद्गुरु शंकराचार्य बदरीनाथ मन्दिर के कपाट बन्द होते समय स्वयं उपस्थित रहे और भगवान् की डोली-पालकी के साथ स्वयं चलकर भगवान् को उनके शीतकालीन प्रवास स्थल पर विराजमान कराया। वे देवप्रयाग और डिम्मर गाँव तक भी उसी तरह गये जिस तरह पूर्वकाल में ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्यगण जाते रहे।
(ब) केवल यही नहीं, उन्होंने उत्तराखण्ड के चारों धाम की शीतकालीन यात्रा भी प्रारम्भ कराई। 'परमाराध्य' के शंकराचार्य पद पर आसीन होने से ज्योतिर्मठ क्षेत्र की जनता अत्यन्त उत्साहित है। सामान्य धारणा यह है कि ६ महीने ही चारों धाम में पूजा होती है पर तथ्य यह है कि ६ महीने मुख्य धामों में पूजा होने के बाद शीतकाल के ६ महीने भी चारों धाम देवताओं की पूजा-अर्चना शीतकालीन चार धामों में होती ही है। अतः विगत दो वर्षों से शीतकालीन पूजा-अर्चना मठ प्रतिनिधियों द्वारा खरसाली, मुखवा, ऊखीमठ और जोशीमठ की यात्रा कर की जाने लगी है।
३६ पुराण-वाचन का उद्घोष
यह सर्वविदित है कि परमाराध्य ने आज तक जो भी उद्घोषणा की है उसे उन्होंने पूरा अवश्य किया है। विगत दिनों छत्तीसगढ के प्रवास में उन्होंने श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान यज्ञ के मंच से इस बात की उद्घोषणा की कि वे छत्तीसगढ नाम को सार्थक करने हेतु ३६ पुराणों (१८ पुराण, १८ उपपुराण) का वाचन करेंगे। इस उद्घोषणा से समस्त छत्तीसगढवासी अत्यन्त प्रसन्न हैं एवं पलक-पॉवडे बिछाकर अपने क्षेत्र में परमाराध्य के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन सभी प्रवचनों की पुस्तक ज्योतिर्मठ के प्रकाशन सेवालय से प्राप्त की जा सकती है।
'परमाराध्य' समस्त विश्व के लिए सनातन संजीवनी के रूप में हम सबको प्राप्त हुए हैं। जब भी सनातन धर्म कमजोर या निष्प्राण होता सा दिखता है तब-तब महाराजश्री धर्म रक्षा का बिगुल बजाते हुए सामने आते हैं और समाज व देश का मार्गदर्शन करते हैं। उनका जीवन एक आदर्श के रूप में आज हम सबके समक्ष है।
धर्म अभिवेचन सेवालय
विगत अनेक दशकों से सभी भारतीय जनमानस के मन में यह बात थी कि टेलीविजन व चलचित्र माध्यमों से दिखाए जा रहे अनर्गल, अश्लील व तथ्यों से विरुद्ध सनातन धर्मविरोधी दृश्यों पर कुछ अंकुश लगना चाहिए क्योंकि आज के दृश्य युग में नयी पीढी पढने से अधिक देख-सुनकर ही ज्ञान अर्जित कर रही है और उसे ही सच मान रही है। वर्षों से दबी जनमानस की इस भावना को स्वर दिया 'परमाराध्य' ने। उन्होंने विगत दिनों प्रयागराज के माघ पर्व पर ज्योतिर्मठ की ओर से माघ पर्व सन्देश प्रसारित किया और सभी सनातनधर्मियों को यह बताया कि गलत देखने और सुनने का भी पाप मनुष्य को लगता है। सन्देश के साथ ही साथ इस कार्य के लिए उन्होंने धर्म अभिवेचन सेवालय (धर्म सेन्सर बोर्ड) की एक समिति भी गठित की जो सक्रिय रूप से इस दिशा में कार्य कर रही है। जिसका सूक्ष्म परिणाम भी अब दिखाई देने लगा है, आगे और भी परिवर्तन निश्चित रूप से दिखेगा।
चमत्कार भ्रमजाल उन्मूलन
पुरुषार्थ व भगवत्कृपा से ही कार्य सिद्ध होते हैं न कि चमत्कार के पीछे भागने से। यह स्पष्ट कथन है 'परमाराध्य' का। धर्म हमें भ्रम से निकलना सिखाता है न कि भ्रमजाल में उलझना। धर्म के नाम पर पिछले कुछ समय से अनेक लोग चमत्कार दिखाने का दावा करके भोली-भाली धार्मिक जनता का दोहन करते आ रहे हैं। कष्ट से आतुर व्यक्ति जब उनके पास पहुँचता है तो धन गॅवाकर अन्त में निराशा ही पाता है। ऐसा केवल सनातन धर्म में ही नहीं अपितु मजहब और रिलीजन मानने वालों के यहाँ भी चल रहा है। विगत दिनों जब ज्योतिर्मठ में भू-धॅसाव की भयावह स्थिति उत्पन्न हुई तब 'परमाराध्य' ने साहस कर उन सभी चमत्कार दिखाने वालों का आह्वान किया कि जोशीमठ की स्थिति को अपने चमत्कार से नियन्त्रित करके दिखाएं। आज तक कोई भी चमत्कारी सामने नहीं आया है। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं को चमत्कारी पुरुष ख्यापित करने वाले लोग केवल धार्मिक जनों की आस्था का लाभ उठा रहे हैं। अन्यथा चमत्कार देश, समाज एवं राष्ट्रहित में भी दिखाए जाते।
ज्योतिर्मठ रक्षा महायज्ञ
विगत दिनों ज्योतिर्मठ क्षेत्र में भू-धॅसाव की भयावह स्थिति उत्पन्न हो गयी। पूरा देश इस बात से आतंकित था कि क्या ज्योतिर्मठ का क्षेत्र इस आपदा में सदा-सदा के लिए अस्तित्वहीन हो जाएगा? 'परमाराध्य' ने भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य की उक्ति 'आपदि किं करणीयम्? स्मरणीयम् चरणयुगलमम्बायाः।' का आश्रय लिया। स्वयं वे अनेक बार लम्बी व कठिन यात्रा तय करके वास्तविक परिस्थिति का निरीक्षण करने पहुँचे और सभी को अभय प्रदान करने वाले ज्योतिर्मठ रक्षा महायज्ञ का विधिपूर्वक अनुष्ठान सम्पन्न कराया। ज्योतिर्मठ क्षेत्रवासियो में यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि इसी यज्ञ के प्रभाव से स्थिति अब तक नियन्त्रित है।
'परमाराध्य' ने ज्योतिर्मठ रक्षा हेतु केवल दैवीय उपाय ही नहीं किए अपितु आपदा की इस भयावह स्थिति में वे स्वयं वहाँ अनेक बार लम्बी व कठिन यात्रा कर पहुँचे और स्थितियों का स्वयं निरीक्षण किया। वैज्ञानिकों के एक दल को स्वतन्त्र रूप से नियुक्त कर उनसे सही कारणों की जाँच भी कराई। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री आदि को भी पत्र लिखकर प्राकृतिक परिस्थितियों के विरुद्ध निर्माणाधीन विकास परियोजनाओं को रोके जाने का अनुरोध किया। उच्चतम न्यायालय में भी ज्योतिर्मठ रक्षा के निमित्त वाद दाखिल किया। भगवत्पाद आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों पीठों में से अन्यतम ज्योतिर्मठ की रक्षा का हर सम्भव प्रयास 'परमाराध्य' द्वारा किया जा रहा है।
'परमाराध्य' ने ज्योतिर्मठ का मतलब केवल मठ परिसर नहीं, अपितु पूरा जोशीमठ कस्बा कहा है और उसी अनुसार प्रत्येक जोशीमठवासी को ज्योतिर्मठ-परिवार का सदस्य मानकर व्यवहार कर रहे हैं।
पूज्य श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम सहित.....